Wednesday 27 August 2008

पकिस्तान में सेना को मजबूत बनाता लोकतंत्र

अरविन्द कुमार सिंह
ऐसा माना जा रहा था कि पडोसी पाकि स्तान में महाभियोग के पहले ही राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की विदाई के बाद लोकतंत्र मजबूत होगा और गठबंधन की खटास को दूर करके नवाज शरीफ और जरदारी शायद नया इतिहास लिखेंगे। लेकिन इसके ठीक विपरीत ,जिस तरह से बर्खास्त जजों की बहाली को एक बड़ा मुद्दा बनाते हुए नवाज शरीफ ने गठबंधन सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला कर लिया,उससे पाकिस्तान की राजनीति में एक बड़ी अस्थिरिता आ खड़ी हुई है। नवाज शरीफ ने इस संकट के लिए आसिफ अली जरदारी को ही जिम्मेदार ठहराया है और राष्ट्रपति चुनाव में अपना उम्मीदवार खड़ा करने का फैसला भी किया है। जाहिर है कि जजों की बहाली को एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना चुके नवाज शरीफ भविष्य के वोट बैंक को ध्यान में रख कर चल रहे हैं। वे पहले से ही पाकिस्तान के मजबूत नेता रहे हैं और पाकिस्तान मुसलिम लीग तथा पीपीपी दोनो ही वहां के मुख्यधारा के दल हैं। बेनजीर भुट्टो के अवसान के बाद निश्चय ही नवाज शरीफ वहां सबसे ताकतवर नेता के रूप में दोबारा उभर रहे हैं। इस नाते एक सीमा तक ही गठबंधन सरकार को वह आगे ले जा सक ते थे। लेकिन अब ताजा पैंतरों के साथ यह बात तो साफ हो गयी है कि लगता है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र को ग्रहण लगा रहेगा। जब भी राजनीतिक दलों के समक्ष बेहतर कार्यकरण को दिखाने का मौका मिलता है, उनके निहित स्वार्थ आड़े आ जाते है। आसिफ अली जरदारी चाहते तो शायद बर्खास्त जजों की बहाली के साथ नवाज शरीफ की पार्टी को राष्ट्रपति के चुनाव में समर्थन देकर खटास समाप्त कर सकते थे और नया इतिहास लिखा जाता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और राष्ट्रपति चुनाव के लिए आम सहमति भी नहीं बन सकी । सहमति बनाने के पहले ही पीपीपी की ओर से खुद जरदारी को उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। हालांकि पहले से ही पीपीपी के पास प्रधानमंत्री जैसा पद है ऐसे में मुख्य सहयोगी नवाज शरीफ की पार्टी को यह पद देकर गतिरोध को टाला जा सकता था। नवाज शरीफ ने पूर्व जज सईद उस जमा सिद्दीकी को अपना उम्मीदवार बनाया है। वहीं दूसरी ओर पीएमएल (क्यू )ने अपने महासचिव मुशाहिद हुसैन को अपना उम्मीदवार बना कर मुकाबला तिकोना बना दिया है। परवेज मुशर्रफ की विदाई के बाद जब 18 अगस्त को मियां समरू कार्यवाहक राष्ट्रपति बना दिए गए थे तो तत्काल ही नया चुनाव कार्यक्रम म घोषित करने की जरूरत नहीं थी। चूंकि जरदारी के दबाव में ही 6 सितंबर को नए राष्ट्रपति के चुनाव की तारीख तय करा दी गयी और खुद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कराने की चाल चली गयी एसे में तनाव होना स्वाभाविक था । अब असली सवाल यह उठता है कि क्या पाकि स्तान के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तथा 59 अन्य बर्खास्त जजों को बहाल कि जा सकेगा और मौजूदा गतिरोध को दूर किया जा सकेगा? पाकिस्तान में 1999 में नवाज शरीफ के तख्तापलट के बाद 9 सालों तक लोकतंत्र को रौंदते हुए परवेज मुशर्रफ ने राज किया। लोकतंत्र ने नयी करवट ली तो लोकप्रिय नेता बेनजीर भुट्टो को आतंकवाद ने शिकार बना दिया। इसी के बाद नयी सरकार बनी और जरदारी पहली बार मजबूती से राजनीतिक क्षितिज पर उभरे। महत्वाकाक्षा वास्तव में प्रधानमंत्री बनने की थी लेकिन वह पूरी नहीं हो पायी। प्रधानमंत्री का पद यूसुफ रजा गिलानी को मिला जो काफी समझदार नेता हैं और नवाज शरीफ के प्रांत पंजाब के निवासी हैं। बहरहाल ताजा राजनीतिक अस्थिरता के दौर में इस बात का खतरा ज्यादा बढ़ रहा है कि कहीं दोबारा सेना पाकिस्तानी सत्ता का अपहरण न कर ले। आम तौर पर ऐसे ही मौको पर कई पाक वहां सेना ने सत्ता का अपहरण किया है। सबसे पहले पाकिस्तान में 1958 में जनरल अयूब खान ने सैनिक तानाशाह की भूमिका शुरू की थी जिसे 1969 में जनरल याह्या खान , 1977 में जनरल जियाउल हक और 1999 में परवेज मुशर्रफ ने आगे बढ़ाया। यह खतरा आगे बरकरार है , अगर पाकिस्तान नेताओं ने समझदारी से काम नहीं लिया तो लोकतंत्र के पक्ष में वे लगातार आंदोलन ही चलाते रहेंगे।

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