ठोस बाढ़ नियंत्रण योजनाएं बनानी जरूरी
अरविन्द कुमार सिंह
बिहार तथा नेपाल में कोसी नदी की विनाशलीला से कई सवाल खड़े हो गए हैं। आखिर नदियां बेलगाम क्यों होती जा रही हैं और भारत सरकर तथा राज्य सरकारें बाढ़ के स्थायी निदान की दिशा में ठोस रणनीति क्यों नहीं बना पा रही है? अगर बाढ़ों से आम आदमी को तबाह होने से बचाना है तो मजबूत इच्छाशक्ति से आगे बढऩा होगा।
सदियों से बिहार के शोक के रूप में कुख्यात कोसी नदी ने हाल में जो महाप्रलय मचाया उससे मची हाहाकार की गूंज दुनिया के हर कोने तक पहुंच गयी है। करीब 200 साल के बाद यह अनहोनी देखने को मिली है कि कोसी पुराने रास्ते पर बहने लगी है और जहां पहले बाढ़ नहीं आती थी, वे इलाके भी डूब गए हैं। नदी पश्चिम से पूर्व की ओर 120 किलोमीटर खिसक गयी है।
नेपाल के कुशहा में कोसी नदी पर बना तटबंध टूटने के कारण ही असली संकट खड़ा हुआ है। यह तटबंध वास्तव में 18 अगस्त को ही टूट गया था पर तब किसी को कमसे कम आशंका हीं थी कि कोसी अपने पुराने रास्ते पर चल देगी और चौतरफा तबाही का मंजर देखने को मिलेगा। सरकार और मीडिया दोनों सोयी थी । कोसी भारत नेपाल के मध्य बहनेवाली गंगा की सबसे बड़ी सहायक नदी है। इसकी बाढ़ को लेकर भारत सरकार व नेपाल के बीच 25 अप्रैल 1954 को नेपाल के साथ समझौता हुआ था। इसके तहत बांध बने । हालांकि भारत नेपाल पर और नेपाल के नेता वहां की बाढ़ के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराते हैं। नेपाल का कहना है कि भारत में 11 बांधों का निर्माण नेपाल सीमा के करीब हुआ है ,जिसमें से आठ बांधों के बारे में नेपाल सरकार से सहमति भी नहीं ली गयी है।
भारत सरकार कोसी नदी के बंधों और बैराज की मरम्मत और रखरखाव के लिए अपने खाते से धन देती है। लेकिन इसकी मरम्मत का पूरा दायित्व बिहार सरकार पर है। इस बांध का जीवनकाल 20 साल पहले ही समाप्त हो गया था,पर सरकार ने ध्यान नहीं दिया। अब जो खबरें छन कर आ रही है, उसके मुताबिक तटबंध बचाया जा सकता था लेकिन ठेकेदारों की आपसी लड़ाई तथा बंदरबांट के चलते सदी की सबसे बड़ी आपदाओं में एक का जन्म हो गया। कोसी नदी का कहर भारत ही नहीं नेपाल भी झेल रहा है और काफी तबाही हुई है। बिहार मे कोसी के ताजा कहर से 15 जिलों में ऐसी तबाही मची है कि सेना और राहत टीमें भी लोगों को अभी तक सुरक्षित स्थानों तक नहीं पहुंचा सकी हैं।
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह तथा यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने बिहार के बाढग़्रस्त इलाको का दौरा करके इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित किया और प्रभावित लोगों के लिए एक हजार करोड़ रूपए का पैकेज तथा 1.25 लाख टन अनाज देने की घोषणा भी की है। रेल मंत्री लालू यादव तथा बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के दबाव के चलते केद्र सरकार खास तौर पर हरकत में आयी है। फिलहाल केन्द्र और राज्य सरकार के बीच श्रेय की राजनीति भी शुरू हो गयी है। इस समय उत्तर बिहार के जिलों की 40 लाख से अधिक आबादी सीधे चपेट में है और कोसी का पाट 18 किमी लंबा हो गया है। यही नहीं गंगा, घाघरा, बूढ़ी गंडक भी खतरे के निशान से ऊपर बढ़ गयी हैं। इसी तरह पंजाब में भी सतलुज में आयी बाढ़ से 540 गांव बुरी तरह प्रभावित हैंं।
भारत का सबसे ज्यादा बाढग़्रस्त राज्य बिहार माना जाता है, जहां 76 फीसदी आबादी और करीब 74 फीसदी जमीन पर बाढ़ का खतरा बना ही रहता है। कोसी ही नहीं, गंडक , बागमती, बूढ़ी गंडक , कमला बलान, महानंदा समेत कुछ और नदियां हर साल नेपाल से तबाही का पैगाम लेकर बिहार आती है। बिहार के लोगों ने बाढ़ के साथ जीना सीख लिया है और राजनेताओं तथा राहत माफियाओं ने बाढ़ो से अपनी तिजोरियां भरना भी अरसे से जारी रखा है। इसी नाते हर साल बाढ़ बहुतों के लिए खुशहाली का पैगाम भी लाती है। लाखों मकान ध्वस्त हो जाते हैं और खेती तो खैर बर्बाद हो ही जाती है। अकेले बीती बाढ़ में ही बिहार में 6.90 लाख मकान ढ़ह गए थे। इस बार तबाही कितनी हुई है,इसका अंदाज पानी निकल जाने के बाद ही हो सकेगा। 1998 की भयानक यूपी -बिहार की बाढ़ के बाद भारत सरकार ने एक विशेषज्ञ समिति बनायी थी ,जिसने कई योजनाएं बना कर क्रियान्वयन के लिए दोनो सरकारों के पास भेजा। बिहार में कोसी परियोजना भी इसमें शामिल थी। पर इस पर काम आगे नही बढ़ा।
राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के मूल्यांकन के मुताबिक भारत में करीब 400 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ की संभावनाओंवाला है। अगर सरकार चाहे तो इनमें से 320 लाख हैक्टेयर क्षेत्र को बचा सकती है। हर साल बाढ़ से कमसे कम 80 लाख हैक्टेयर क्षेत्र प्रभावित होता है। इसमें से करीब 37 लाख हैक्टेयर फसली क्षेत्र होता है। इतने बड़े इलाको में पानी भरने से जाहिर है कि काफी मात्रा में अनाज उत्पादन भी प्रभावित होता है। लेकिन बाढ़ की समस्या के स्थायी निदान की दिशा मे कमिटी बनाने के अलावा और कोई ठोस प्रयास अभी तक किया नहीं गया है। कई राज्य तो ऐसे हैं, जहां बाढ़ स्थायी आयोजन ही हो गया है। देश में सबसे ज्यादा तबाही दक्षिणी -पश्चिमी मानसून ( 1 जून से 30 सिंतबर) के दौरान होता है। बाढ़ प्रबंधन राज्यों का विषय है और राहत प्रदान करना भी मुख्य रूप से उसके ही जिम्मे है, पर गंभीर मामलों में केन्द्र सरकार अपने कोष से राज्यों को मदद करती है। केद्रीय संसाधन मंत्रालय बाढ़ प्रबंधन का नोडल मंत्रालय बनाया गया है जो राज्य सरकारों से मिल कर ढ़ाचागत और गैर ढ़ाचागत उपाय करता है।
बीते दो मौको पर प्रधानमंत्री ने बिहार की बाढ़ की विनाशलीला को करीब से देखा है। 2005 में जब वह बिहार के दौरे पर गए थे तो उन्होने दिल्ली लौटने के बाद केंद्रीय जल आयोग के अध्यक्ष के नेतृत्व में 21 सदस्यीय कार्यबल गठित किया। यह बाढ़ तथा कटाव से संबंघित समस्या से निपटने के लिए बनाया गया था। जाहिर है कि इस दिशा में अगर कोई ठोस प्रयास किया गया होता तो तस्वीर बेहतर ही होती। पर ऐसा हुआ नहीं। इसी तरह बाढ़ की क्षति कम हो इसके लिए केद्रीय जल आयोग ने 171 बाढ़ पूर्वानुमान केद्र बना रखे हैं और चेतावनी भी राज्य सरकारों को भेजी जाती है। लेकिन इस सारे प्रयासों के बाद भी देश में बाढ़ें विकराल होती जा रही हैं। बाढ़ विभीषिका के चलते हर साल लाखों लोग विस्थापित होते हैं, जबकीसंचार तंत्र भी कई हिस्सो में टूट जाता है। यूपी, बिहार और असम के कई हिस्सों में तो आम तौर पर हर साल हाहाकार मचता है। यह भी देखने को मिल रहा है की हाल के सालों में बाढ़े अधिकि प्रलयंकारी होती जा रही है। राजस्थान जैसे मरूप्रदेश के जैसलमेर जैसे इलाको में भयानक बाढ़ आयी थी ।
देश के अधिकाश बाढ़ प्रवणक्षेत्र गंगा तथा ब्रहमपुत्र के बेसिन , महानदी, कृष्णा और गोदावरी के निचले खंडों में आते हैं। नर्मदा और तापी भी बाढ़ प्रवण है पर गंगा और ब्रहमपुत्र के बेसिन से लगे राज्यों मेंं तो बाढ़ आती ही रहती है। गंगा बेसिन की सभी 23 नदियों की प्रणाली पर अध्ययन कर नियंत्रण प्रणालियों के लिए मास्टर योजनाएं भी बनी और श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में ब्रहमपुत्र और उसकी सहायक नदियो के लिए मास्टर योजनाए तैयार करने के लिए 1980 में ब्रहमपुत्र बोर्ड का गठन किया गया था। बोर्ड ने असम में धौला, हाथीघुली, माजुली दीप में कटावरोधी स्कीम तथा पगलादिया बांध परियोजना शुरू की है। बाढ़ से क्षति के विरूद्द उपयुक्त सीमा तक संरक्षण प्रदान करने के लिए विभिन्न संरचनात्मक और गैर संरचनात्मक उपायों के तहत भंडारण रिजर्वोयर, बाढ़ तटबंध, ड्रेनेज चैनल, शहरी संरक्षण निर्माण कार्य , बाढ़ पूर्वानुमान तथा बंद पड़ी नालियों और पुलो को खोलने जैसे कार्य प्रमुख हैं।
हाल में केंद्रीय जल आयोग ने बाढ़ संभावित 6 नदियों ब्रहमपुत्र, कोसी, गंडक , घघ्घर, सतलुज और गंगा के आकृतमूल अध्ययन का काम अपने हाथ में लिया । इसके पहले भी काफी जांच पड़ताल हो चुकी है। पर असली सवाल यह उठता है की बाढ़ों को नियति मान कर चला जाये या फिर दलालों और स्वार्थी तत्वों का जमघट तोडऩे के लिए ठोस रणनीति बना कर इस दिशा में प्रभावी नियंत्रण का कार्य आगे बढ़े।
Saturday, 30 August 2008
Wednesday, 27 August 2008
पकिस्तान में सेना को मजबूत बनाता लोकतंत्र
अरविन्द कुमार सिंह
ऐसा माना जा रहा था कि पडोसी पाकि स्तान में महाभियोग के पहले ही राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की विदाई के बाद लोकतंत्र मजबूत होगा और गठबंधन की खटास को दूर करके नवाज शरीफ और जरदारी शायद नया इतिहास लिखेंगे। लेकिन इसके ठीक विपरीत ,जिस तरह से बर्खास्त जजों की बहाली को एक बड़ा मुद्दा बनाते हुए नवाज शरीफ ने गठबंधन सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला कर लिया,उससे पाकिस्तान की राजनीति में एक बड़ी अस्थिरिता आ खड़ी हुई है। नवाज शरीफ ने इस संकट के लिए आसिफ अली जरदारी को ही जिम्मेदार ठहराया है और राष्ट्रपति चुनाव में अपना उम्मीदवार खड़ा करने का फैसला भी किया है। जाहिर है कि जजों की बहाली को एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना चुके नवाज शरीफ भविष्य के वोट बैंक को ध्यान में रख कर चल रहे हैं। वे पहले से ही पाकिस्तान के मजबूत नेता रहे हैं और पाकिस्तान मुसलिम लीग तथा पीपीपी दोनो ही वहां के मुख्यधारा के दल हैं। बेनजीर भुट्टो के अवसान के बाद निश्चय ही नवाज शरीफ वहां सबसे ताकतवर नेता के रूप में दोबारा उभर रहे हैं। इस नाते एक सीमा तक ही गठबंधन सरकार को वह आगे ले जा सक ते थे। लेकिन अब ताजा पैंतरों के साथ यह बात तो साफ हो गयी है कि लगता है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र को ग्रहण लगा रहेगा। जब भी राजनीतिक दलों के समक्ष बेहतर कार्यकरण को दिखाने का मौका मिलता है, उनके निहित स्वार्थ आड़े आ जाते है। आसिफ अली जरदारी चाहते तो शायद बर्खास्त जजों की बहाली के साथ नवाज शरीफ की पार्टी को राष्ट्रपति के चुनाव में समर्थन देकर खटास समाप्त कर सकते थे और नया इतिहास लिखा जाता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और राष्ट्रपति चुनाव के लिए आम सहमति भी नहीं बन सकी । सहमति बनाने के पहले ही पीपीपी की ओर से खुद जरदारी को उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। हालांकि पहले से ही पीपीपी के पास प्रधानमंत्री जैसा पद है ऐसे में मुख्य सहयोगी नवाज शरीफ की पार्टी को यह पद देकर गतिरोध को टाला जा सकता था। नवाज शरीफ ने पूर्व जज सईद उस जमा सिद्दीकी को अपना उम्मीदवार बनाया है। वहीं दूसरी ओर पीएमएल (क्यू )ने अपने महासचिव मुशाहिद हुसैन को अपना उम्मीदवार बना कर मुकाबला तिकोना बना दिया है। परवेज मुशर्रफ की विदाई के बाद जब 18 अगस्त को मियां समरू कार्यवाहक राष्ट्रपति बना दिए गए थे तो तत्काल ही नया चुनाव कार्यक्रम म घोषित करने की जरूरत नहीं थी। चूंकि जरदारी के दबाव में ही 6 सितंबर को नए राष्ट्रपति के चुनाव की तारीख तय करा दी गयी और खुद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कराने की चाल चली गयी एसे में तनाव होना स्वाभाविक था । अब असली सवाल यह उठता है कि क्या पाकि स्तान के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तथा 59 अन्य बर्खास्त जजों को बहाल कि जा सकेगा और मौजूदा गतिरोध को दूर किया जा सकेगा? पाकिस्तान में 1999 में नवाज शरीफ के तख्तापलट के बाद 9 सालों तक लोकतंत्र को रौंदते हुए परवेज मुशर्रफ ने राज किया। लोकतंत्र ने नयी करवट ली तो लोकप्रिय नेता बेनजीर भुट्टो को आतंकवाद ने शिकार बना दिया। इसी के बाद नयी सरकार बनी और जरदारी पहली बार मजबूती से राजनीतिक क्षितिज पर उभरे। महत्वाकाक्षा वास्तव में प्रधानमंत्री बनने की थी लेकिन वह पूरी नहीं हो पायी। प्रधानमंत्री का पद यूसुफ रजा गिलानी को मिला जो काफी समझदार नेता हैं और नवाज शरीफ के प्रांत पंजाब के निवासी हैं। बहरहाल ताजा राजनीतिक अस्थिरता के दौर में इस बात का खतरा ज्यादा बढ़ रहा है कि कहीं दोबारा सेना पाकिस्तानी सत्ता का अपहरण न कर ले। आम तौर पर ऐसे ही मौको पर कई पाक वहां सेना ने सत्ता का अपहरण किया है। सबसे पहले पाकिस्तान में 1958 में जनरल अयूब खान ने सैनिक तानाशाह की भूमिका शुरू की थी जिसे 1969 में जनरल याह्या खान , 1977 में जनरल जियाउल हक और 1999 में परवेज मुशर्रफ ने आगे बढ़ाया। यह खतरा आगे बरकरार है , अगर पाकिस्तान नेताओं ने समझदारी से काम नहीं लिया तो लोकतंत्र के पक्ष में वे लगातार आंदोलन ही चलाते रहेंगे।
ऐसा माना जा रहा था कि पडोसी पाकि स्तान में महाभियोग के पहले ही राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की विदाई के बाद लोकतंत्र मजबूत होगा और गठबंधन की खटास को दूर करके नवाज शरीफ और जरदारी शायद नया इतिहास लिखेंगे। लेकिन इसके ठीक विपरीत ,जिस तरह से बर्खास्त जजों की बहाली को एक बड़ा मुद्दा बनाते हुए नवाज शरीफ ने गठबंधन सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला कर लिया,उससे पाकिस्तान की राजनीति में एक बड़ी अस्थिरिता आ खड़ी हुई है। नवाज शरीफ ने इस संकट के लिए आसिफ अली जरदारी को ही जिम्मेदार ठहराया है और राष्ट्रपति चुनाव में अपना उम्मीदवार खड़ा करने का फैसला भी किया है। जाहिर है कि जजों की बहाली को एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना चुके नवाज शरीफ भविष्य के वोट बैंक को ध्यान में रख कर चल रहे हैं। वे पहले से ही पाकिस्तान के मजबूत नेता रहे हैं और पाकिस्तान मुसलिम लीग तथा पीपीपी दोनो ही वहां के मुख्यधारा के दल हैं। बेनजीर भुट्टो के अवसान के बाद निश्चय ही नवाज शरीफ वहां सबसे ताकतवर नेता के रूप में दोबारा उभर रहे हैं। इस नाते एक सीमा तक ही गठबंधन सरकार को वह आगे ले जा सक ते थे। लेकिन अब ताजा पैंतरों के साथ यह बात तो साफ हो गयी है कि लगता है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र को ग्रहण लगा रहेगा। जब भी राजनीतिक दलों के समक्ष बेहतर कार्यकरण को दिखाने का मौका मिलता है, उनके निहित स्वार्थ आड़े आ जाते है। आसिफ अली जरदारी चाहते तो शायद बर्खास्त जजों की बहाली के साथ नवाज शरीफ की पार्टी को राष्ट्रपति के चुनाव में समर्थन देकर खटास समाप्त कर सकते थे और नया इतिहास लिखा जाता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और राष्ट्रपति चुनाव के लिए आम सहमति भी नहीं बन सकी । सहमति बनाने के पहले ही पीपीपी की ओर से खुद जरदारी को उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। हालांकि पहले से ही पीपीपी के पास प्रधानमंत्री जैसा पद है ऐसे में मुख्य सहयोगी नवाज शरीफ की पार्टी को यह पद देकर गतिरोध को टाला जा सकता था। नवाज शरीफ ने पूर्व जज सईद उस जमा सिद्दीकी को अपना उम्मीदवार बनाया है। वहीं दूसरी ओर पीएमएल (क्यू )ने अपने महासचिव मुशाहिद हुसैन को अपना उम्मीदवार बना कर मुकाबला तिकोना बना दिया है। परवेज मुशर्रफ की विदाई के बाद जब 18 अगस्त को मियां समरू कार्यवाहक राष्ट्रपति बना दिए गए थे तो तत्काल ही नया चुनाव कार्यक्रम म घोषित करने की जरूरत नहीं थी। चूंकि जरदारी के दबाव में ही 6 सितंबर को नए राष्ट्रपति के चुनाव की तारीख तय करा दी गयी और खुद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कराने की चाल चली गयी एसे में तनाव होना स्वाभाविक था । अब असली सवाल यह उठता है कि क्या पाकि स्तान के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तथा 59 अन्य बर्खास्त जजों को बहाल कि जा सकेगा और मौजूदा गतिरोध को दूर किया जा सकेगा? पाकिस्तान में 1999 में नवाज शरीफ के तख्तापलट के बाद 9 सालों तक लोकतंत्र को रौंदते हुए परवेज मुशर्रफ ने राज किया। लोकतंत्र ने नयी करवट ली तो लोकप्रिय नेता बेनजीर भुट्टो को आतंकवाद ने शिकार बना दिया। इसी के बाद नयी सरकार बनी और जरदारी पहली बार मजबूती से राजनीतिक क्षितिज पर उभरे। महत्वाकाक्षा वास्तव में प्रधानमंत्री बनने की थी लेकिन वह पूरी नहीं हो पायी। प्रधानमंत्री का पद यूसुफ रजा गिलानी को मिला जो काफी समझदार नेता हैं और नवाज शरीफ के प्रांत पंजाब के निवासी हैं। बहरहाल ताजा राजनीतिक अस्थिरता के दौर में इस बात का खतरा ज्यादा बढ़ रहा है कि कहीं दोबारा सेना पाकिस्तानी सत्ता का अपहरण न कर ले। आम तौर पर ऐसे ही मौको पर कई पाक वहां सेना ने सत्ता का अपहरण किया है। सबसे पहले पाकिस्तान में 1958 में जनरल अयूब खान ने सैनिक तानाशाह की भूमिका शुरू की थी जिसे 1969 में जनरल याह्या खान , 1977 में जनरल जियाउल हक और 1999 में परवेज मुशर्रफ ने आगे बढ़ाया। यह खतरा आगे बरकरार है , अगर पाकिस्तान नेताओं ने समझदारी से काम नहीं लिया तो लोकतंत्र के पक्ष में वे लगातार आंदोलन ही चलाते रहेंगे।
Friday, 8 August 2008
स्वागत बीजिंग ....पर तिब्बतिओं का भी ध्यान रहे
अरविन्द कुमार सिंह
दिनांक ८-८- ०८
बीजिंग ओल्यंपिक की भव्य और रंगारंग शुरूआत भले ही हो गयी हो पर दुनिया के तमाम देशों में जिस तरह से तिब्बतिओं ने अपने मुद्दे को ओल्य्म्पिक के बहाने पहुंचाया, यह भी काफी महत्वपूर्ण घटना मानी जा रही है। किसी भी देश के इतिहास में ओल्य्म्पिक का आयोजन एक शानदार मौका होता है। इस बहाने उस देश को अपनी कला , संस्कृति, सभ्यता तथा विकास को दुनिया को दिखाने का अवसर भी मिलता है। चीन ने भी इस अवसर का लाभ उठाने का भरपूर प्रयास किया है, पर जगह-जगह तिबतियों ने अपनी मुहिम के द्वारा तिब्बत समस्या पर जिस तरह से ध्यान खींचा और उनको जो सहानुभूति मिली , उससे कई बाते साफ होती है। भले ही इस काम में देर हो पर उनके सवालो को चीनी नेतृत्व को एजेंडे पर लाना ही पड़ेगा। आम तौर पर ओल्य्म्पिक के आयोजनों में राजनीति नहीं होती और १९८० के शुरूआती साल को छोड़ दे तो इस बार सा नजारा पहले कभी नहीं दिखा। इस दफा प्रदूषण से लेकर मानवाधिकार जैसे सवालो की गूंज दुनिया भर में सुनायी पड़ी। बेशक चीन महाबली और तमाम मामलो में उसने काफी सफलताएँ हासिल की है। चीन के विरोधी देश भी उसकी इन सफलताओं के लिए उसे सम्मान की निगाह से देखते हैं। तिब्बत के सवाल पर चीन जरूर घिर गया है। साथ ही भारत जैसे देशों के लिए यह सवाल कूटनीति के रिश्तों के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण बन गया है, जहां बहुत बड़ी संख्या में तिब्बती शरणार्थी रह रहे हैं। दिल्ली के जंतर मंतर पर बीते काफी समय से तिब्बती अपने सवाल को मुखर किए हैं और चीनी दूतावास से लेकर तमाम जगहों पर उन्होने विरोध प्रदर्शन भी किया। भारत की सुरक्षा एजेंसियों की चुस्ती के नाते ओल्य्म्पिक मशाल रिले में तो कोई बाधा नहीं डाली जा सकी लेकिन जो कुछ हुआ उसकी पहुच बीजिंग तक जरूर हुई। ओल्य्म्पिक खेलों पर निश्चय ही पूरी दुनिया की निगाह रहती है। इस तरह उससे जुड़े सवाा भी नेपथ्य में नही डाले जा सकते हैं। आज की दुनिया मानवाधिकारों के प्रति काफी सजग और सचेत है। इसी के साथ विश्व जनमत बहुत से सवालो का जवाब दे रहा है। किसी भी देश के पास कितने परमाणु हथियार और कितनी लम्बी मार करनेवाली मिसाइले क्यों न हों विश्व जनमत से बड़ी ताकत उनकी नही है । हाल की लड़ाइयों के बाद अमेरिका ने बखूबी समझा है। इस तरह लाखों तिब्बतिओं की आवाज में जो दुनिया की आवाज मिल रही है तो फिर निश्चय ही वह बीजिंग ओल्य्म्पिक के शोर में दब नहीं सकती और एक दिन चीन को भी उनकी बातों को सुनना ही पड़ेगा और उनके साथ न्यायसंगत वर्ताव करना होगा। हालांकि आयोजको को भरोसा है ,खेल शुरू होने के साथ ही चीन के खिलाफ राजनीतिक विरोध प्रदर्शन नेपथ्य में खो जाएगे। यह एक हद तक सही हो सकता है, पर इन प्रदर्शनों के द्वारा खड़े किए सवालों को एकदम किनारे नही किया जा सकता है। ओल्य्म्पिक की भावना का स्वागत है ,खेल जारी रहने चाहिए पर साथ ही यह भी देखना है, लोगों की भावनाओं के साथ खेल नहीं हो।
Tuesday, 5 August 2008
देश में प्रतिदिन जाती हैं साढ़े चार करोड़ चिट्ठियां!
देश में प्रतिदिन जाती हैं साढ़े चार करोड़ चिट्ठियां!
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17 जून 2008 वार्ता नई दिल्ली। संचार क्रांति के वर्तमान युग में भी संवाद प्रेषण के पारम्परिक माध्यम ‘पत्र’ की खास अहमियत अभी भी कायम है और देश में आज भी रोजाना करीब साढ़े चार करोड़ ‘चिट्ठियां’ डाक में डाली जाती हैं।दुनिया की तमाम सभ्यता, संस्कृति, साहित्य एवं कला को गति देने वाली, चिट्ठियों का महत्व आज के युग में भी टेलीफोन तंत्र एवं एसएमएस (संदेश) से कहीं ज्यादा है। इसलिए इसकी भूमिका आधुनिक समाज में भी बरकरार है।पढ़ें: अब संदेश भेजे ‘डिजिफ्रैंक प्लस’ पर यही सोचकर राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने अपने पाठ्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द कुमार सिंह लिखित ‘चिट्ठियों की अनूठी दुनिया’ शीर्षक से एक अध्याय शुरू करने का निर्णय लिया है।इसमें लिखा गया है कि चिट्ठियों के आदान-प्रदान का इतिहास मानव सभ्यता के विकास से जुड़ा हुआ है, जिसने पिछली शताब्दी में पत्र लेखन का रूप ले लिया और जिसे विश्व डाक संघ ने तरह-तरह से प्रोत्साहित किया। इसी कड़ी में 1972 में 16 वर्ष से कम आयु वर्ष के बच्चों के बीच पत्र लेखन प्रतियोगिताएं शुरू हुई। संचार क्रांति के युग में भी हमारे सैनिक पत्रों का जिस उत्सुकता से इंतजार करते हैं, उसकी कोई मिसाल ही नहीं है।पढ़ें: चिट्ठी पहुंचेगी तो एसएमएस आएगा आज देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो अपने पुरखों की चिट्ठियों को सहेज और संजोकर विरासत के रूप में रखे हुए हों या फिर बड़े-बड़े लेखक, पत्रकारों, उद्यमी, कवि, प्रशासक, संन्यासी या किसान, इनकी पत्र रचनाएं अपने आप में अनुसंधान का विषय हैं।अगर आज जैसे संचार साधन होते तो पंडित नेहरू अपनी पुत्री इंदिरा गांधी को फोन करते, पर तब ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ पुस्तक की रचना नहीं हो पाती जो देश के करोड़ों लोगों को प्रेरणा का स्त्रोत है। पत्रों को तो सहेजकर रखा जाता हैं पर एसएमएस संदेशों को हम जल्दी ही भूल जाते हैं। तमाम महान हस्तियों की तो सबसे बड़ी यादगार धरोहर उनके द्वारा लिखे गए पत्र ही हैं। भारत में इस श्रेणी में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को सबसे आगे रखा जा सकता है। इस अध्याय में लिखा गया है कि महात्मा गांधी के पास दुनिया भर से तमाम पत्र केवल ‘महात्मा गांधी, इंडिया’ लिखे आते थे और वे जहां भी रहते थे वहां तक पहुंच जाते थे। आजादी के आंदोलन की कई अन्य दिग्गज हस्तियों के साथ भी ऐसा ही था। गांधीजी के पास देश-दुनिया से बड़ी संख्या में पत्र पहुंचते थे पर पत्रों का जवाब देने के मामले में उनका कोई जोड़ नहीं था। कहा जाता है कि जैसे ही उन्हें पत्र मिलता था, उसी समय वे उसका जवाब भी लिख देते थे। अपने हाथों से ही ज्यादातर पत्रों का जवाब देते थे। कई लोगों ने तो उन पत्रों को फ्रेम कराकर रख लिया है।पत्रों के आधार पर ही कई भाषाओं में जाने कितनी किताबें लिखी जा चुकी हैं। वास्तव में पत्र किसी दस्तावेज से कम नहीं हैं। पंत के दो सौ पत्र बच्चन के नाम और निराला के पत्र ‘हमको लिख्यौ है कहा’ तथा ‘पत्रों के आईने में’ दयानंद सरस्वती समेत कई पुस्तकें उपलब्ध हैं। कहा जाता है कि प्रेमचंद खास तौर पर नए लेखकों को बहुत प्रेरक जवाब देते थे तथा पत्रों के जवाब में वे बहुत मुस्तैद रहते थे।इसी प्रकार नेहरू और गांधी के लिखे गए रवींद्रनाथ टैगोर के पत्र भी बहुत प्ररेक हैं। ‘महात्मा और कवि’ के नाम से महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के बीच सन 1915 से 1941 के बीच के पत्राचार का संग्रह प्रकाशित हुआ है जिसमें बहुत से नए तथ्यों और उनकी मनोदशा का लेखा-जोखा मिलता है।
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17 जून 2008 वार्ता नई दिल्ली। संचार क्रांति के वर्तमान युग में भी संवाद प्रेषण के पारम्परिक माध्यम ‘पत्र’ की खास अहमियत अभी भी कायम है और देश में आज भी रोजाना करीब साढ़े चार करोड़ ‘चिट्ठियां’ डाक में डाली जाती हैं।दुनिया की तमाम सभ्यता, संस्कृति, साहित्य एवं कला को गति देने वाली, चिट्ठियों का महत्व आज के युग में भी टेलीफोन तंत्र एवं एसएमएस (संदेश) से कहीं ज्यादा है। इसलिए इसकी भूमिका आधुनिक समाज में भी बरकरार है।पढ़ें: अब संदेश भेजे ‘डिजिफ्रैंक प्लस’ पर यही सोचकर राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने अपने पाठ्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द कुमार सिंह लिखित ‘चिट्ठियों की अनूठी दुनिया’ शीर्षक से एक अध्याय शुरू करने का निर्णय लिया है।इसमें लिखा गया है कि चिट्ठियों के आदान-प्रदान का इतिहास मानव सभ्यता के विकास से जुड़ा हुआ है, जिसने पिछली शताब्दी में पत्र लेखन का रूप ले लिया और जिसे विश्व डाक संघ ने तरह-तरह से प्रोत्साहित किया। इसी कड़ी में 1972 में 16 वर्ष से कम आयु वर्ष के बच्चों के बीच पत्र लेखन प्रतियोगिताएं शुरू हुई। संचार क्रांति के युग में भी हमारे सैनिक पत्रों का जिस उत्सुकता से इंतजार करते हैं, उसकी कोई मिसाल ही नहीं है।पढ़ें: चिट्ठी पहुंचेगी तो एसएमएस आएगा आज देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो अपने पुरखों की चिट्ठियों को सहेज और संजोकर विरासत के रूप में रखे हुए हों या फिर बड़े-बड़े लेखक, पत्रकारों, उद्यमी, कवि, प्रशासक, संन्यासी या किसान, इनकी पत्र रचनाएं अपने आप में अनुसंधान का विषय हैं।अगर आज जैसे संचार साधन होते तो पंडित नेहरू अपनी पुत्री इंदिरा गांधी को फोन करते, पर तब ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ पुस्तक की रचना नहीं हो पाती जो देश के करोड़ों लोगों को प्रेरणा का स्त्रोत है। पत्रों को तो सहेजकर रखा जाता हैं पर एसएमएस संदेशों को हम जल्दी ही भूल जाते हैं। तमाम महान हस्तियों की तो सबसे बड़ी यादगार धरोहर उनके द्वारा लिखे गए पत्र ही हैं। भारत में इस श्रेणी में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को सबसे आगे रखा जा सकता है। इस अध्याय में लिखा गया है कि महात्मा गांधी के पास दुनिया भर से तमाम पत्र केवल ‘महात्मा गांधी, इंडिया’ लिखे आते थे और वे जहां भी रहते थे वहां तक पहुंच जाते थे। आजादी के आंदोलन की कई अन्य दिग्गज हस्तियों के साथ भी ऐसा ही था। गांधीजी के पास देश-दुनिया से बड़ी संख्या में पत्र पहुंचते थे पर पत्रों का जवाब देने के मामले में उनका कोई जोड़ नहीं था। कहा जाता है कि जैसे ही उन्हें पत्र मिलता था, उसी समय वे उसका जवाब भी लिख देते थे। अपने हाथों से ही ज्यादातर पत्रों का जवाब देते थे। कई लोगों ने तो उन पत्रों को फ्रेम कराकर रख लिया है।पत्रों के आधार पर ही कई भाषाओं में जाने कितनी किताबें लिखी जा चुकी हैं। वास्तव में पत्र किसी दस्तावेज से कम नहीं हैं। पंत के दो सौ पत्र बच्चन के नाम और निराला के पत्र ‘हमको लिख्यौ है कहा’ तथा ‘पत्रों के आईने में’ दयानंद सरस्वती समेत कई पुस्तकें उपलब्ध हैं। कहा जाता है कि प्रेमचंद खास तौर पर नए लेखकों को बहुत प्रेरक जवाब देते थे तथा पत्रों के जवाब में वे बहुत मुस्तैद रहते थे।इसी प्रकार नेहरू और गांधी के लिखे गए रवींद्रनाथ टैगोर के पत्र भी बहुत प्ररेक हैं। ‘महात्मा और कवि’ के नाम से महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के बीच सन 1915 से 1941 के बीच के पत्राचार का संग्रह प्रकाशित हुआ है जिसमें बहुत से नए तथ्यों और उनकी मनोदशा का लेखा-जोखा मिलता है।
कबूतर से कूरियर तक
कबूतर से कूरियर तक
कासिद के जरिए खत भेजने से शुरू हुआ डाक का सिलसिला भले कूरियर और ई-मेल के दौर में पहुंच गया हो लेकिन भारत में आज भी कबूतरों, खच्चरों और ऊंट से डाक सेवा बदस्तूर चल रही है।नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित अरविंद कुमार सिंह लिखित पुस्तक 'भारतीय डाक : सदियों का सफरनामा' के अनुसार उड़ीसा पुलिस ने 1946 में कबूतर डाक सेवा स्थापित की। 40 कबूतरों के साथ शुरू की गई सेवा में इस वक्त करीब 1000 से अधिक कबूतर कार्यरत हैं।ये कबूतर दुर्गम इलाकों में प्राकृतिक प्रकोप या किन्हीं अन्य कारणों से जहां आदमी नहीं पहुंच सकता वहां आज बतौर डाकिया सेवा देते हैं। इस किताब के लेख चिठ्ठियों की अनोखी दुनिया को राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद कक्षा आठवीं की हिन्दी की नई पाठ्यपुस्तक वसंत भाग-3 में शामिल किया गया है।बहरहाल दुनिया की अपनी तरह की यह अनोखी डाक सेवा मोबाइल और इंटरनेट के युग में बंद होने की कगार पर पहुंच गई है। पुस्तक के अनुसार दुनिया की जानी मानी समाचार एजेंसी 'रायटर' ने कबूतरों का उपयोग समाचार हासिल करने के लिए लंबे समय तक किया।इसी प्रकार ब्रिटेन की ग्रेट बैरियर पिजनग्राम कंपनी ने 65 किमी कबूतर संदेश सेवा स्थापित की थी, ताकि संदेश तेजी से पहुंचाया जा सके।
भाषा
कासिद के जरिए खत भेजने से शुरू हुआ डाक का सिलसिला भले कूरियर और ई-मेल के दौर में पहुंच गया हो लेकिन भारत में आज भी कबूतरों, खच्चरों और ऊंट से डाक सेवा बदस्तूर चल रही है।नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित अरविंद कुमार सिंह लिखित पुस्तक 'भारतीय डाक : सदियों का सफरनामा' के अनुसार उड़ीसा पुलिस ने 1946 में कबूतर डाक सेवा स्थापित की। 40 कबूतरों के साथ शुरू की गई सेवा में इस वक्त करीब 1000 से अधिक कबूतर कार्यरत हैं।ये कबूतर दुर्गम इलाकों में प्राकृतिक प्रकोप या किन्हीं अन्य कारणों से जहां आदमी नहीं पहुंच सकता वहां आज बतौर डाकिया सेवा देते हैं। इस किताब के लेख चिठ्ठियों की अनोखी दुनिया को राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद कक्षा आठवीं की हिन्दी की नई पाठ्यपुस्तक वसंत भाग-3 में शामिल किया गया है।बहरहाल दुनिया की अपनी तरह की यह अनोखी डाक सेवा मोबाइल और इंटरनेट के युग में बंद होने की कगार पर पहुंच गई है। पुस्तक के अनुसार दुनिया की जानी मानी समाचार एजेंसी 'रायटर' ने कबूतरों का उपयोग समाचार हासिल करने के लिए लंबे समय तक किया।इसी प्रकार ब्रिटेन की ग्रेट बैरियर पिजनग्राम कंपनी ने 65 किमी कबूतर संदेश सेवा स्थापित की थी, ताकि संदेश तेजी से पहुंचाया जा सके।
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Friday, 18 July 2008
chttthion ki dunia
आज भी कायम है चिट्ठियों का जादू
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नयी दिल्ली, संचार क्रांति के इस दौर में खास तौर पर महानगरों में ऐसी आम धारणा बनती जा रही है कि अब चिट्ठियों का कोई महत्व नहीं रहा। उनको मोबाइल और स्थिर फोनों, यातायात के तेज साधनो, इंटरनेट और तमाम अन्य माध्यमो ने बुरी तरह प्रभावित किया है। पर इतने सारे बदलाव के बाद भी चिट्ठियों का जादू खास तौर पर देहाती इलाकों में कायम है और डाकखानो के द्वारा रोज भारत में साढे चार करोड चिट्ठियां भेजी जा रही हैं। भारतीय सैनिकों के बीच रोज सात लाख से अधिक चिट्ठियां बांटी जा रही हैं और आज भी देश के तमाम दुर्गम गावों में डाकिए का उसी बेसब्री से इंतजार किया जाता है जैसा दशको पहले किया जाता था। कूरियर कंपनियों का भी इधर तेजी से शहरों में विस्तार हुआ है, पर उनकी ओर से भेजे जानेवाले पत्रों का कोई विश्वसनीय आंकडा नहीं है। यह सही है कि चिट्ठियों पर फोनो ने सबसे ज्यादा असर डाला है पर उनका जादू आज भी बरकरार है। वरिष्ठ पत्रकार और दैनिक हरिभूमि के स्थानीय संपादक अरविंद कुमार सिंह की पुस्तक भारतीय डाक के एक खंड चिट्ठियों की अनूठी दुनिया को राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने आठवीं कक्षा की हिंदी विषय की नयी पाठ्यपुस्तक वसंत भाग 3 में शामिल किया है। भारतीय डाक तंत्र पर काफी लंबे अनुसंधान के बाद लिखी गयी श्री सिंह की पुस्तक का प्रकाशन नेशनल बुक ट्स्ट द्वारा हिंदी के अलावा अंग्रेजी तथा कई अन्य भारतीय भाषाओं में किया जा रहा है। पुस्तक में संचार क्रांति की चुनौतियों समेत सभी महत्वपूर्ण पक्षों को उठाया गया है और खास तौर पर ग्रामीण डाकघरों की उपादेयता को काफी महत्वपूर्ण माना गया है। उनके मुताबिक संचार क्रांति के क्षेत्र में भी शहर और देहात के बीच म भारी विषमता गहरा रही है। देश में हर माह 70 लाख से एक करोड के बीच में फोन लग रहे हैं फिर भी देहाती इलाकों की तस्वीर बहुत धुंधली है। देहाती फोनो का जिम्मा आज भी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बीएसएनएल ने ही संभाला है और निजी कंपनियां इन इलाकों में जाने से कतरा रही हैं। भले ही 28 करोड से अधिक फोनो के साथ भारत का दूरसंचार नेटवर्क दुनिया का तीसरा और एशिया का दूसरा सबसे बडा नेटवर्क बन गया है। पर दहातीं दूरसंचार घनत्व अभी 9 फीसदी भी नहीं हो पायाहै। अगर ग्यारहवीं योजना के अंत तक की गयी परिकल्पना के अनुसार ग्रामीण दूरसंचार घनत्व बीस करोड फोनो के साथ 25 फीसदी हो जाता है तो भी भारत में देहात के 100 में 75 लोगों के पास फोन नहीं होंगे। लेखक श्री सिंह मानते हैं कि पत्रों की धरोहर को बचाना बहुत जरूरी है । पत्र जैसा संतोष फोन, ईमेल या एसएमएस संदेश नहीं दे सकते हैं। पत्र रिश्तों का एक नया सिलसिला शुरू करते हैं और राजनीति,साहित्य तथा कला क्षेत्र में तमाम विवाद और नयी घटनाओं की जड भी पत्र ही होते हैं. दुनिया का तमाम साहित्य पत्रों पर केंद्रित है और मानव सभ्यता के विकास में इन पत्रों ने अनूठी भूमिका निभायी है। संचार क्रांति के बाद भी पत्रों की विश्वसनीयता को ध्यान में रखते हुए ही तमाम कंपनियों ने व्यापारिक डाक को ही सर्वाधिक महत्व देना शुरू किया है। इसी नाते व्यापारिक डाक की मात्रा लगातार बढ रही है। दुनिया का सबसे पुराना ज्ञात पत्र 2009 ईसा पूर्व के कालखंड का सुमेर का माना जाता है। मिट्टी की पटरी पर यह पत्र लिखा गया था। मनुष्य की विकास यात्रा के साथ पत्रों का सिलसिला भी शुरू हुआ और आदिवासी कबीलों ने संकेतो से संदेश की परंपरा शुरू की। लिपि के आविष्कार के बाद पत्थरों से लेकर पत्ते पत्रों को भेजने का साधन बने। लेखन साधनो तथा डाक प्रणाली के व्यवस्थित विकास के बाद पत्रों को पंख लगे । अगर तलाश करें तो आपको ऐसा कोई नहीं मिलेगा जिसने कभी किसी को पत्र न लिखा या न लिखाया हो या पत्रों का बेसब्री से जिसने इंतजार न किया हो। भारत में सीमाओं और दुर्गम इलाकों में तैनात हमारे सैनिक तो पत्रों का बहुत आतुरता से इंतजार करते हैं। संचार के और साधन उनको पत्रों सा संतोष नहीं दे पाते हैं। एक दौर वह भी था जब लोग पत्रों का महीनो इंतजार करते थे.पर अब वह बात नहीं। लेखक श्री सिंह के मुताबिक राष्ट्रपिता महात्मा गधी तथा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू सभी तरह के पत्रों का हमेशा महत्व देते रहे हैं और पत्रों का जवाब देने में उनका कोई जोड नहीं था। गांधीजी के पास दुनिया भर से तमाम पत्र केवल महात्मा गांधी-इंडिया लिख कर पहुंच जाया करते थे। वे देश के जिस कोने में होते थे, पत्र वहां पहुंच जाते थे। गांधीजी के पास बडी संख्या में पत्र पहुंचते थे पर हाथ के हाथ वे इसका जवाब भी लिख देते थे। अपने हाथों से ही ज्यादातर पत्रों का जवाब देना उनकी आदत थी। कई बार जब लिखते- लिखते उनका दाहिना हाथ दर्द करने लगता था तो वे बाऐं हाथ से लिखने में जुट जाते थे। महात्मा गांधी ही नहीं आंदोलन के तमाम नायकों के पत्र आपको गांव-गांव में लोग सहेजे मिल जाते हैं। पश्चिमी उ.प्र.में आपको कई इलाको में लोग चौ.चरण सिंह तथा बाबू बनारसी दास जैसे नेताओं के पत्र दिखा कर गर्व महसूस करते हैं. उन पत्रों को वे किसी प्रशस्तिपत्र से कम नही मानते हैं और तमाम लोगों ने तो उन पत्रों को फ्रेम करा कर रख लिए हैं। पत्रों के आधार पर ही तमाम भाषाओं में जाने कितनी किताबें लिखी जा चुकी हैं और राजनेताओं के पत्रों ने विवादों की नयी विरासत भी लिखी। पत्र व्यवहार की परंपरा भारत में बहुत पुरानी है। माध्यम डाकिया रहा हो या हंस ,हरकारा रहा हो या फिर कबूतर पर पत्र लगातार पंख लगाकर उडते रहे हैं। नल -दमयती के बीच पत्राचार हंस के माध्यम से होता था तो रूक्मिणी का पत्र श्रीकृष्ण को विपृ के माध्यम से मिलता था। माक्र्स और एंजिल्स के बीच ऐतिहासिक मित्रता का सूत्र पत्र ही थे। इसी तरह रवींद्र नाथ टैगोर ने दीन बंधु एंड्रूज को जो पत्र लिखा था वह लेटर टू ए फ्रेंड नाम से एक किताब का आकार लेने में सफल रही, जबकि लियो टालस्टाय द्वारा रोमां रोला को लिखे गए पत्रों ने उनकी जीवनधारा ही बदल दी। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आजादी के आंदोलन के दौरान जेल में रहते अपनी पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी या अन्य को जो पत्र लिखे वे वे स्वयं में महान रचना का रूप ले चुके हैं। इसी तरह उर्दू के मशहूर शायर गालिब अपने मित्रों को खूब पत्र लिखते थे और उन पत्रों के विषय भी कई बार पत्र ही होते थे। भारत में तमाम लेखकों और कवियों ने पत्रों की महिमा पर सहित्य लिखा है। पत्रों के संदर्भ के साथ यह देखना भी जरूरी है कि दुनिया भर में डाकघरों की भूमिका में बदलाव आ रहे हैं। आजादी के बाद भारतीय डाक नेटवर्क का विस्तार सात गुना से ज्यादा हुआ है। भारतीय डाक प्रणाली आज दुनिया की सबसे विश्वसनीय और अमेरिका, चीन, बेल्जियम और ब्रिटेन से भी बेहतर प्रणाली साबित हो चुकी है। भारतीय डाक तंत्र ने नीति निर्माताओं की तमाम उपेक्षा के बाद भी खास तौर पर देहाती और दुर्गम इलाकों में पत्र भेजने के साथ साक्षरता अभियान तथा समाचारपत्रों को ऐतिहासिक मदद की पहुंचायी है। रेडियो के विकास में भी डाक विभाग का अहम योगदान रहा है। मनीआर्डर, डाक जीवन बीमा तथा डाकघर बचत बैंक खुद में बडी संस्था का रूप ले चुके हैं। यही नहीं कम ही लोग जानते हैं कि नोबुल पुरस्कार विजेता सीवी रमण, मुंशी प्रेमचंद, अक्कीलन, राजिंदर सिंह बेदी, देवानंद, नीरद सी चौधरी, महाश्वेता देवी से लेकर कृष्णविहारी नूर डाक विभाग में कर्मचारी या अधिकारी रहे हैं
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नयी दिल्ली, संचार क्रांति के इस दौर में खास तौर पर महानगरों में ऐसी आम धारणा बनती जा रही है कि अब चिट्ठियों का कोई महत्व नहीं रहा। उनको मोबाइल और स्थिर फोनों, यातायात के तेज साधनो, इंटरनेट और तमाम अन्य माध्यमो ने बुरी तरह प्रभावित किया है। पर इतने सारे बदलाव के बाद भी चिट्ठियों का जादू खास तौर पर देहाती इलाकों में कायम है और डाकखानो के द्वारा रोज भारत में साढे चार करोड चिट्ठियां भेजी जा रही हैं। भारतीय सैनिकों के बीच रोज सात लाख से अधिक चिट्ठियां बांटी जा रही हैं और आज भी देश के तमाम दुर्गम गावों में डाकिए का उसी बेसब्री से इंतजार किया जाता है जैसा दशको पहले किया जाता था। कूरियर कंपनियों का भी इधर तेजी से शहरों में विस्तार हुआ है, पर उनकी ओर से भेजे जानेवाले पत्रों का कोई विश्वसनीय आंकडा नहीं है। यह सही है कि चिट्ठियों पर फोनो ने सबसे ज्यादा असर डाला है पर उनका जादू आज भी बरकरार है। वरिष्ठ पत्रकार और दैनिक हरिभूमि के स्थानीय संपादक अरविंद कुमार सिंह की पुस्तक भारतीय डाक के एक खंड चिट्ठियों की अनूठी दुनिया को राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने आठवीं कक्षा की हिंदी विषय की नयी पाठ्यपुस्तक वसंत भाग 3 में शामिल किया है। भारतीय डाक तंत्र पर काफी लंबे अनुसंधान के बाद लिखी गयी श्री सिंह की पुस्तक का प्रकाशन नेशनल बुक ट्स्ट द्वारा हिंदी के अलावा अंग्रेजी तथा कई अन्य भारतीय भाषाओं में किया जा रहा है। पुस्तक में संचार क्रांति की चुनौतियों समेत सभी महत्वपूर्ण पक्षों को उठाया गया है और खास तौर पर ग्रामीण डाकघरों की उपादेयता को काफी महत्वपूर्ण माना गया है। उनके मुताबिक संचार क्रांति के क्षेत्र में भी शहर और देहात के बीच म भारी विषमता गहरा रही है। देश में हर माह 70 लाख से एक करोड के बीच में फोन लग रहे हैं फिर भी देहाती इलाकों की तस्वीर बहुत धुंधली है। देहाती फोनो का जिम्मा आज भी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बीएसएनएल ने ही संभाला है और निजी कंपनियां इन इलाकों में जाने से कतरा रही हैं। भले ही 28 करोड से अधिक फोनो के साथ भारत का दूरसंचार नेटवर्क दुनिया का तीसरा और एशिया का दूसरा सबसे बडा नेटवर्क बन गया है। पर दहातीं दूरसंचार घनत्व अभी 9 फीसदी भी नहीं हो पायाहै। अगर ग्यारहवीं योजना के अंत तक की गयी परिकल्पना के अनुसार ग्रामीण दूरसंचार घनत्व बीस करोड फोनो के साथ 25 फीसदी हो जाता है तो भी भारत में देहात के 100 में 75 लोगों के पास फोन नहीं होंगे। लेखक श्री सिंह मानते हैं कि पत्रों की धरोहर को बचाना बहुत जरूरी है । पत्र जैसा संतोष फोन, ईमेल या एसएमएस संदेश नहीं दे सकते हैं। पत्र रिश्तों का एक नया सिलसिला शुरू करते हैं और राजनीति,साहित्य तथा कला क्षेत्र में तमाम विवाद और नयी घटनाओं की जड भी पत्र ही होते हैं. दुनिया का तमाम साहित्य पत्रों पर केंद्रित है और मानव सभ्यता के विकास में इन पत्रों ने अनूठी भूमिका निभायी है। संचार क्रांति के बाद भी पत्रों की विश्वसनीयता को ध्यान में रखते हुए ही तमाम कंपनियों ने व्यापारिक डाक को ही सर्वाधिक महत्व देना शुरू किया है। इसी नाते व्यापारिक डाक की मात्रा लगातार बढ रही है। दुनिया का सबसे पुराना ज्ञात पत्र 2009 ईसा पूर्व के कालखंड का सुमेर का माना जाता है। मिट्टी की पटरी पर यह पत्र लिखा गया था। मनुष्य की विकास यात्रा के साथ पत्रों का सिलसिला भी शुरू हुआ और आदिवासी कबीलों ने संकेतो से संदेश की परंपरा शुरू की। लिपि के आविष्कार के बाद पत्थरों से लेकर पत्ते पत्रों को भेजने का साधन बने। लेखन साधनो तथा डाक प्रणाली के व्यवस्थित विकास के बाद पत्रों को पंख लगे । अगर तलाश करें तो आपको ऐसा कोई नहीं मिलेगा जिसने कभी किसी को पत्र न लिखा या न लिखाया हो या पत्रों का बेसब्री से जिसने इंतजार न किया हो। भारत में सीमाओं और दुर्गम इलाकों में तैनात हमारे सैनिक तो पत्रों का बहुत आतुरता से इंतजार करते हैं। संचार के और साधन उनको पत्रों सा संतोष नहीं दे पाते हैं। एक दौर वह भी था जब लोग पत्रों का महीनो इंतजार करते थे.पर अब वह बात नहीं। लेखक श्री सिंह के मुताबिक राष्ट्रपिता महात्मा गधी तथा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू सभी तरह के पत्रों का हमेशा महत्व देते रहे हैं और पत्रों का जवाब देने में उनका कोई जोड नहीं था। गांधीजी के पास दुनिया भर से तमाम पत्र केवल महात्मा गांधी-इंडिया लिख कर पहुंच जाया करते थे। वे देश के जिस कोने में होते थे, पत्र वहां पहुंच जाते थे। गांधीजी के पास बडी संख्या में पत्र पहुंचते थे पर हाथ के हाथ वे इसका जवाब भी लिख देते थे। अपने हाथों से ही ज्यादातर पत्रों का जवाब देना उनकी आदत थी। कई बार जब लिखते- लिखते उनका दाहिना हाथ दर्द करने लगता था तो वे बाऐं हाथ से लिखने में जुट जाते थे। महात्मा गांधी ही नहीं आंदोलन के तमाम नायकों के पत्र आपको गांव-गांव में लोग सहेजे मिल जाते हैं। पश्चिमी उ.प्र.में आपको कई इलाको में लोग चौ.चरण सिंह तथा बाबू बनारसी दास जैसे नेताओं के पत्र दिखा कर गर्व महसूस करते हैं. उन पत्रों को वे किसी प्रशस्तिपत्र से कम नही मानते हैं और तमाम लोगों ने तो उन पत्रों को फ्रेम करा कर रख लिए हैं। पत्रों के आधार पर ही तमाम भाषाओं में जाने कितनी किताबें लिखी जा चुकी हैं और राजनेताओं के पत्रों ने विवादों की नयी विरासत भी लिखी। पत्र व्यवहार की परंपरा भारत में बहुत पुरानी है। माध्यम डाकिया रहा हो या हंस ,हरकारा रहा हो या फिर कबूतर पर पत्र लगातार पंख लगाकर उडते रहे हैं। नल -दमयती के बीच पत्राचार हंस के माध्यम से होता था तो रूक्मिणी का पत्र श्रीकृष्ण को विपृ के माध्यम से मिलता था। माक्र्स और एंजिल्स के बीच ऐतिहासिक मित्रता का सूत्र पत्र ही थे। इसी तरह रवींद्र नाथ टैगोर ने दीन बंधु एंड्रूज को जो पत्र लिखा था वह लेटर टू ए फ्रेंड नाम से एक किताब का आकार लेने में सफल रही, जबकि लियो टालस्टाय द्वारा रोमां रोला को लिखे गए पत्रों ने उनकी जीवनधारा ही बदल दी। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आजादी के आंदोलन के दौरान जेल में रहते अपनी पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी या अन्य को जो पत्र लिखे वे वे स्वयं में महान रचना का रूप ले चुके हैं। इसी तरह उर्दू के मशहूर शायर गालिब अपने मित्रों को खूब पत्र लिखते थे और उन पत्रों के विषय भी कई बार पत्र ही होते थे। भारत में तमाम लेखकों और कवियों ने पत्रों की महिमा पर सहित्य लिखा है। पत्रों के संदर्भ के साथ यह देखना भी जरूरी है कि दुनिया भर में डाकघरों की भूमिका में बदलाव आ रहे हैं। आजादी के बाद भारतीय डाक नेटवर्क का विस्तार सात गुना से ज्यादा हुआ है। भारतीय डाक प्रणाली आज दुनिया की सबसे विश्वसनीय और अमेरिका, चीन, बेल्जियम और ब्रिटेन से भी बेहतर प्रणाली साबित हो चुकी है। भारतीय डाक तंत्र ने नीति निर्माताओं की तमाम उपेक्षा के बाद भी खास तौर पर देहाती और दुर्गम इलाकों में पत्र भेजने के साथ साक्षरता अभियान तथा समाचारपत्रों को ऐतिहासिक मदद की पहुंचायी है। रेडियो के विकास में भी डाक विभाग का अहम योगदान रहा है। मनीआर्डर, डाक जीवन बीमा तथा डाकघर बचत बैंक खुद में बडी संस्था का रूप ले चुके हैं। यही नहीं कम ही लोग जानते हैं कि नोबुल पुरस्कार विजेता सीवी रमण, मुंशी प्रेमचंद, अक्कीलन, राजिंदर सिंह बेदी, देवानंद, नीरद सी चौधरी, महाश्वेता देवी से लेकर कृष्णविहारी नूर डाक विभाग में कर्मचारी या अधिकारी रहे हैं
Sunday, 25 May 2008
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